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भारत का संविधान और अल्पसंख्यक

बात पते की....
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भारत का संविधान और अल्पसंख्यक
लेखक: शम्भु चौधरी
कोलकाता (14’अप्रेल,2015) भारत के संविधान भाग-3 देश के नागरिकों के  मूलभूत अधिकारों की श्रृंखला में अनुच्छेद की धारा 25 से 30 के बीच धर्म से संबंधित कई धाराएं व उप धाराएं जोड़ी गई है।  जिसमें धारा 29 व 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को अलग से व्याखित किया गया है, ताकी भारत में रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को बचाये रखने और उनको अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अपनी रुचिनुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना  कर अपने बच्चों को तदुनुसार पोषित कर सकें।
इस धारा की मूल भावना उन अल्पसंख्यक समुदायों को सामाजिक सुरक्षा देना है। परन्तु यदि यही सुरक्षा भारत की असुरक्षा का कारण बन जाए तो इस पर हमें पुनः सोचने की और अल्पसंख्यक शब्द को पुनः परिभाषित करने की जरूरत हो जाती है।
आज भारत की जमीं पर ही भारतीय हिन्दू समुदाय ना सिर्फ अल्पसंख्यक होते जा रहें हैं, जो समुदाय अल्पसंख्यक थे वे अब बहुसंख्यक बनकर उन भारतीयों को उनकी मूल जमीं से ना सिर्फ वेदखल कर रहें हैं  अब तो उनके खिलाफ खुले आम जहर भी उगल रहें हैं। उनकी भाषा, संस्कृति और धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात भी करते पाये जा रहें है। जिसका ताजा उदाहरण कश्मीरी पंडितों का ही ले लें । पिछले 25 सालों से उन्हें ना सिर्फ अपनी जमीं से अलग रहना पड़ रहा है। भारत की पिछली कई सरकारों की दोगली नीति के चलते उनके बच्चों आज भी सड़कों पर अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहें हैं।
सवाल उठता है कि जिस बहुसंख्यक वर्ग की पहल पर जिन अल्पसंख्यक समुदाय को धार्मिक, सामाजिक सुरक्षा प्रदान की थी, यदि आज किसी क्षेत्र में उसी के चलते हिन्दू समाज के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो जाए तो ऐसी स्थिति में वे कब तक मुकदर्शक बने देखते रहेगें?
सवाल यह भी उठता है कि किसी अल्पसंख्यक को राजनीति सुरक्षा प्रदान करने यह अर्थ तो नहीं हो सकता कि वह समाज खुद ही उस असुरक्षा का शिकार हो जाए?
आज कश्मीर में हुआ है, कल उत्तरप्रदेश में हैदराबाद में होगा। फिर बंगाल और बिहार में। किसी भी समुदाय के धार्मिक सुरक्षा का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि जबतक वे खुद को सुरक्षित हैं तबतक तो इस संविधान की दुहाई देते रहें, बाद में उनका धर्म ही संविधान की जगह ले ले। यह कब तक चल सकता है? हमें इस दिशा पर सोचना होगा।
कश्मीरी पंडितों को लेकर मुसलमानों को सोचना ही होगा कि वे अलगावादियों का समर्थन करेंगें कि कश्मीरी पंडितों का? यदि भारत के मुसलमान सोचते हैं कि चुप रह कर अलगावादियों  का समर्थन करतें रहेगें तो बहुसंख्यक वर्ग को अभी से सचेत हो जाने कि आवश्यकता है। अन्यथा यह खतरे की घंटी हर राज्यों में बजनेवाली है।

लेखक: शम्भु चौधरी

भारत के संविधान भाग-3 देश के नागरिकों के  मूलभूत अधिकारों की श्रृंखला में अनुच्छेद की धारा 25 से 30 के बीच धर्म से संबंधित कई धाराएं व उप धाराएं जोड़ी गई है।  इस धारा की मूल भावना उन अल्पसंख्यक समुदायों को सामाजिक सुरक्षा देना है। परन्तु यदि यही धारा  भारत की असुरक्षा का कारण बन जाए तो इस पर हमें पुनः सोचने की और अल्पसंख्यक शब्द को पुनः परिभाषित करने की जरूरत हो जाती है।

कोलकाता (14’अप्रेल,2015) भारत के संविधान भाग-3 देश के नागरिकों के  मूलभूत अधिकारों की श्रृंखला में अनुच्छेद की धारा 25 से 30 के बीच धर्म से संबंधित कई धाराएं व उप धाराएं जोड़ी गई है।  जिसमें धारा 29 व 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को अलग से व्याखित किया गया है, ताकी भारत में रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को बचाये रखने और उनको अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अपनी रुचिनुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना  कर अपने बच्चों को तदुनुसार पोषित कर सकें।

भारत के संविधान भाग-3 देश के नागरिकों के  मूलभूत अधिकारों की श्रृंखला में अनुच्छेद की धारा 25 से 30 के बीच धर्म से संबंधित कई धाराएं व उप धाराएं जोड़ी गई है।  इस धारा की मूल भावना उन अल्पसंख्यक समुदायों को सामाजिक सुरक्षा देना है। परन्तु यदि यही धारा  भारत की असुरक्षा का कारण बन जाए तो इस पर हमें पुनः सोचने की और अल्पसंख्यक शब्द को पुनः परिभाषित करने की जरूरत हो जाती है।

आज भारत की जमीं पर ही भारतीय हिन्दू समुदाय ना सिर्फ अल्पसंख्यक होते जा रहें हैं, जो समुदाय अल्पसंख्यक थे वे अब बहुसंख्यक बनकर उन भारतीयों को उनकी मूल जमीं से ना सिर्फ वेदखल कर रहें हैं  अब तो उनके खिलाफ खुले आम जहर भी उगल रहें हैं। उनकी भाषा, संस्कृति और धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात भी करते पाये जा रहें है। जिसका ताजा उदाहरण कश्मीरी पंडितों का ही ले लें । पिछले 25 सालों से उन्हें ना सिर्फ अपनी जमीं से अलग रहना पड़ रहा है। भारत की पिछली कई सरकारों की दोगली नीति के चलते उनके बच्चों आज भी सड़कों पर अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहें हैं।

सवाल उठता है कि जिस बहुसंख्यक वर्ग की पहल पर जिन अल्पसंख्यक समुदाय को धार्मिक, सामाजिक सुरक्षा प्रदान की थी, यदि आज किसी क्षेत्र में उसी के चलते हिन्दू समाज के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो जाए तो ऐसी स्थिति में वे कब तक मुकदर्शक बने देखते रहेगें?

सवाल यह भी उठता है कि किसी अल्पसंख्यक को राजनीति सुरक्षा प्रदान करने यह अर्थ तो नहीं हो सकता कि वह समाज खुद ही उस असुरक्षा का शिकार हो जाए?

आज कश्मीर में हुआ है, कल उत्तरप्रदेश में हैदराबाद में होगा। फिर बंगाल और बिहार में। किसी भी समुदाय के धार्मिक सुरक्षा का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि जबतक वे खुद को सुरक्षित हैं तबतक तो इस संविधान की दुहाई देते रहें, बाद में उनका धर्म ही संविधान की जगह ले ले। यह कब तक चल सकता है? हमें इस दिशा पर सोचना होगा।

कश्मीरी पंडितों को लेकर मुसलमानों को सोचना ही होगा कि वे अलगावादियों का समर्थन करेंगें कि कश्मीरी पंडितों का? यदि भारत के मुसलमान सोचते हैं कि चुप रह कर अलगावादियों  का समर्थन करतें रहेगें तो बहुसंख्यक वर्ग को अभी से सचेत हो जाने कि आवश्यकता है। अन्यथा यह खतरे की घंटी हर राज्यों में बजनेवाली है।

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